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Saturday, May 7, 2011

माँ-एक

जब अपने इर्द-गिर्द पाता हूँ,
चुभती निगाहोँ का जमघट,
उपेक्षा भरे व्यंग्य-बाणोँ का कारवाँ,
वक्त के झंझावतोँ से थककर,
कटे दरख़्त-सा निढाल/बेबस,
ढूँढता हूँ अपना बचपन,
वक्त के खौफनाक बियावन मेँ
एक अधूरापन,एक उलझाव,एक धुँधलका,
हर-पल कचोटता है,मेरे वज़ूद को,
शायद तेरा ममत्व, समय से पहले
छिन जाने का प्रतिरूप है ये,
इसलिये तू बहुत याद आती है माँ........

रचयिता-मयंक शेखर गौनियाल 'शशांक'
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